Saturday 17 August 2013

“ख़त जो लिखा नहीं गया”



ख़त जो लिखा नहीं गया                           
                  …………………..कहानी: शिशिर कृष्ण शर्मा

(जनसत्ता सबरंग / दिसम्बर 1998 में प्रकाशित !!!)

दिन ढलने लगा है !

इन चार बरसों में सब कुछ कितना बदल गया है अम्मी। दिन तब भी ढलता था, लेकिन तब आसमान का रंग ऐसा हो उठता था, मानों दूर-दूर तक किसी ने केसर बिखेर दिया हो। घर के पिछवाड़े की केसर की क्यारियां और ढलते दिन का आसमान एक हो उठते थे।  कुदरत के उस खूबसूरत नज़ारे को बांहों में भर लेने को जी चाहता था। लेकिन आज उसी आसमान को देखकर दहशत सी होने लगती है। ऐसा लगता है मानों उससे ख़ून टपक रहा हो। दिल डूबने लगता है और साफ़ ताज़ा ख़ून से पुते आसमान को देखकर उबकाई आने लगती है। जिन चिनारों के साए में खेल-खेलकर बड़ा हुआ, आज उन्हीं से नफ़रत सी हो गयी है। तब के वो ख़ूबसूरत दरख़्त आज ज़िंदा लाशों की तरह बेहद डरावने लगने लगे हैं, मानों अभी मुझपर झपट पड़ेंगे। तब इंतज़ार रहता था बर्फ़ गिरने का, गिरती बर्फ़ में खेलने का और ताज़ा-ताज़ा बर्फ़ में चीनी मिलाकर खाने का। आज वोही बर्फ़ जान की दुश्मन बन बैठी है।

परसों जमील को हमारे साथियों ने ही मार डाला। लगातार बर्फ़ में चलते रहने से उसके पांव में गैंगरीन हो गयी थी। चल नहीं पाता था बेचारा। बोझ बन गया था सबके लिए। गिड़गिड़ाता रहा - ‘मैं मरना नहीं चाहता, मुझे मत मारो’ - लेकिन यहां इंसान की कोई कीमत थोड़ा ही है। कमांडर ने हुक़्म दिया और एक ही लम्हे में छलनी कर दिया गया उसे। मैं दिल ही दिल में रोता-तड़पता रहा लेकिन चेहरे को पत्थर का बनाए रखना मेरी मजबूरी थी, क्योंकि यहां जज़्बात के लिए कोई जगह नहीं है अम्मी। लाश को यों ही छोड़ सब यों आगे बढ़ गए मानों कुछ हुआ ही हो।  

चार बरस पहले घर छोड़ा था, दिल में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा लिए। तब क्या मालूम था कि एक ऐसी अंधी सुरंग में क़दम रखने जा रहा हूं जिससे लौट पाना नामुमकिन होगा। ताउम्र उसके दमघोंटू माहौल में चलते, रेंगते, घिसटते रहना होगा, कभी मिल सकने वाले दूसरे सिरे की तलाश में। मेरी वजह से तुम कितनी तक़लीफ़ें उठा रही हो, मैं जानता हूं अम्मी। मुझे मालूम है, जब-तब घर में पुलिस घुस आती है। तुमसे बदसलूक़ी करती है, मेरे बारे में पूछताछ के नाम पर मारपीट करती है, लेकिन अब तो ख़ून भी नहीं खौलता अम्मी ऐसी ख़बरें सुनकर। मेरा तो ख़ून तक ठंडा हो चुका है...मछली के खून की तरह।

गए बरस अब्बू के इंतकाल की ख़बर सुनकर बहुत तड़पा। बहुत चाहा कि आख़िरी बार उनका चेहरा तो देख लूं। लेकिन घर के चारों तरफ़ तो पुलिस लगी थी। मैं, अब्बू का इकलौता बेटा, इतना बदनसीब कि बाप की क़ब्र में एक मुट्ठी मिट्टी भी डाल सका? हालांकि एक रात छुपता-छुपाता जाकर दो फूल तो चढ़ा आया था उनकी क़ब्र पर। लेकिन कुछ देर वहां रोकर दिल को हल्का कर पाना शायद मेरे नसीब में नहीं था। वहां रूकने में ख़तरा जो था।

दिन ढल रहा है अम्मी। आसमान का रंग ताज़े खून सा सुर्ख़ हो चला है। मुझे बेहद डर लग रहा है ये खून देखकर। तुम शायद चूल्हे के क़रीब बैठीं सब्ज़ी काट रही होंगी। या फिर आटा गूंध रही होंगी। चार बरस पहले तक मैं भी तो इस वक़्त तुम्हारी गोद में सर रखकर लेटा रहता था। सच में, चूल्हे की आग से ज़्यादा सुक़ून तुम्हारी मोहब्बत की तपिश में मिलता था। मुझे याद आती हैं तुम्हारी वो मीठी झिड़कियां, जब मेरा सर तुम्हारी गोद में होता था और तुम्हारा पांव सो जाता था और तुम मुझे दूर ढकेलतीं ऊंट, गदहा, ढींग, जाने क्या-क्या नाम दे डालती थीं। लेकिन अब तो वो सुक़ून, वो मीठी नींद, तुम्हारी वो प्यार भरी झिड़कियां ग़ुज़रे दिनों की यादें बनकर रह गयी हैं। अब तो सोते वक़्त भी आंखें और कान खुले रखने पड़ते हैं। मुट्ठियां बंदूक पर कसी रहती हैं। ज़रा सी आहट पर नींद खुल जाती है। रातोंरात हथियार और अस्बाब उठाकर मीलों भागना पड़ता है। पुलिस के साथ मुठभेड़ रोज़ का नियम सा बन गया है। मैं बहुत थक गया हूं अम्मी। किसलिए?...किसके लिए कर रहा हूं ये सब?  

बहुत से सुनहरे ख़्वाब आंखों में लिए घर छोड़ा था। बहुत जज़्बा था दिल में क़ौम के लिए कुछ कर गुज़रने का। लेकिन सरहद पार करते ही सब चकनाचूर हो गया। इंसान से हम भेड़-बकरियों में तब्दील हो गए। बहुत बुरा सुलूक़ करते थे वो लोग हमारे साथ। ट्रेनिंग के नाम पर अलस्सुबह उठकर देर रात तक भारीभरकम हथियार चलाना, कंधे पर रखकर मीलों दौड़ना, और अगर कहीं कोई कोताही हो जाए तो बंदूक की बटों से पिटाई। खाना तक भरपेट नहीं मिलता था। घर की बहुत याद सताती थी। लेकिन वापस लौटने के रास्ते भी तो बंद थे। रशीद और ज़ुबैर उस रात तंग आकर भागने की कोशिश में पकड़े गए तो उन्हें हम सबके सामने गोली से उड़ा दिया गया। और फिर कमांडर ने धमकी दी, कि आइंदा किसी ऐसी हरक़त की तो उसका भी यही हश्र होगा।

मैं तरसता हूं अम्मी तुम्हारा दुलार पाने को। बहुत याद आती हैं तुम्हारी बनाई रोटियां, वो लज़ीज़ आलूदम का सालन और उससे बढ़कर तुम्हारा अपने हाथों से खिलाना। और सर्दियों में प्यार से फ़िरन के अंदर मेरे सीने के पास तुम्हारा वो कांगड़ी बांधना। अम्मी, तुम्हें बचपन से ही परवीन बहुत पसंद थी ? सेब जैसे उसके गाल और सुर्ख़ हो उठते थे, जब तुम कहती थीं कि इसको तो अपनी बहू बनाऊंगी मैं। हालांकि तब हम निकाह का मतलब भी ठीक से नहीं समझते थे। और आज जब मैं सबकुछ समझने लायक हुआ हूं तो तुम्हारी तमन्ना पूरी कर पाना मेरे लिए मुमक़िन नहीं। और अगर होता भी तो सच-सच बताओ अम्मी, क्या आज तुम परवीन को अपनी बहू बना सकती थीं? अम्मी, परवीन के साथ जो कुछ हुआ, मुझे नहीं लगता कि उसमें इधर वालों का कोई हाथ रहा होगा। हम इतना नहीं गिर सकते कि अपनी बहन, बेटियों और बहुओं को महज़ इस्तेमाल की शय बनाकर रख दें। लेकिन हम मजबूर हैं। चौबीसों घंटे उनकी निगाहें हम पर गड़ी रहती हैं। हम उनके हाथों का खिलौना बनकर रह गए हैं।    
      
अम्मी, चिनार के इन दरख़्तों की टहनियां लोहे के पंजों में तब्दील होकर मेरी तरफ़ बढ़ रही हैं। मेरी सांसें अटक रही हैं। पैरों तले की बर्फ़ ने लोहे की बेड़ी बनकर सख़्ती से मेरे पंजों को जकड़ लिया है। आसमान से टपकते ख़ून ने मुझे तरबतर कर दिया है। हवा में जलते गोश्त की सड़ांध फैल गयी है। मुझे ताज़ी हवा चाहिए अम्मी। मैं मरना नहीं चाहता, मैं जीना चाहता हूं। मैं जानता हूं किसी एक कारतूस पर मेरा भी नाम लिखा जा चुका है। लेकिन मैं नहीं जानता कि वो कारतूस मेरे अपने साथियों की बंदूक से निकलेगा या पुलिस की। तब सोचता था, जेहाद से बढ़कर ख़ुदा की इबादत का दूसरा कोई तरीक़ा नहीं हो सकता। लेकिन आज अपनी उस सोच के खोखलेपन को शिद्दत से महसूस कर रहा हूं। इबादत के वक़्त जिस पाक़ीज़गी, सुक़ून और पाबंदी की जरूरत होती है, वो तो कभी की खो बैठा हूं। और महज़ रस्मअदायगी के लिए नमाज़ पढ़ लेने को तो ख़ुदा की इबादत हरगिज़ नहीं कहा जा सकता ? और फिर जो नशा मज़हब में हराम है, जबरन उसकी पनाह में जाना पड़ता है किसी भी वहशियाना हरक़त को सरंजाम देने से पहले हिम्मत बनाए रखने के लिए।

.....अम्मी, मैं तो आज ख़ुद को सच्चा मुसलमां भी नहीं कह सकता! 
 
तुम्हें याद है अम्मी, एक बार कौल चाचा अपने एक नजूमी दोस्त के साथ घर पर आए थे? मेरा हाथ देखकर लम्हे भर में उसके चेहरे पर सैकड़ों रंग आए-गए और मेरी हथेली बंद करके वो बोला था, छोटे बच्चों का हाथ नहीं देखना चाहिए। शायद आने वाले वक़्त में होने वाली मेरी बरबादी को मेरी हथेली की लकीरों में पढ़ लिया था उसने।

मैं, शादाब, बसंत, मनोहर उन दिनों रोज़ शिकारे पर बैठकर झील की सैर किया करते थे। कितने सुहाने दिन थे वो। बहुत याद आता है बेफ़िक़्री का वो आलम। वो किचलू मामा के बागीचे के सेब और खुबानियां और पंडित चाचा के बागीचे के अखरोट और चिलगोज़े। दिल नहीं भरता था खाते-खाते। आज तो सुना वो बागीचे झाड़-झंखाड़ में तब्दील हो चुके हैं। किचलू मामा, पंडित चाचा, बसंत, मनोहर, सभी तो चले गए हैं घरबार छोड़कर! लेकिन शादाब को भी तो भागना पड़ा? अम्मी, वो समझदार था कि मेरी तरह बरबादी के रास्ते पर कदम रखना उसने मंज़ूर नहीं किया। तमाम दबावों से बचकर सैकड़ों मील दूर किसी बड़े शहर में जाकर शादाब की तरह किसी सिक्योरिटी एजेंसी में नौकरी कर लेना यक़ीनन बेहतर था। काश, कि ये बात मैं चार बरस पहले समझ पाता। इन सभी को अपनी जड़ें छोड़कर भागना पड़ा, इसका गुनहगार मैं भी तो कहीं कहीं हूं अम्मी

अम्मी, मेरा दिल घबरा रहा है। आसमान से टपकता ख़ून जमकर काला पड़ने लगा है। चिनारों के साए लंबे होते-होते अंधेरों में खोने लगे हैं। बर्फ़ की सफ़ेदी पर कोई सुरमई रंग की कूंची फेर गया है। एक कसक सी उठ रही है दिल में कि काश, कोई मेरी ज़िंदगी से ये पिछले चार बरस मिटा देता तो मैं एक बार फिर से पाता खुद को चूल्हे के पास तुम्हारी गोद में सर रखकर लेटे हुए, शादाब, बसंत और मनोहर के साथ शिकारे पर झील की सैर करते हुए, किचलू मामा और पंडित चाचा के बागीचों में सेब, खुबानियां, अखरोट और चिलगोज़े बटोरते हुए, चिनारों के झुरमुट तले खेलते हुए, ताज़ा बर्फ़ में चीनी मिलाकर खाते हुए। सच में अम्मी, आज भी याद आती है मुझे मस्जिद में मौलवी साहब की बनाई वो तस्वीर जिसमें एक गंजे सर के सिर्फ माथे पर बालों का एक गुच्छा था। मेरे पूछने पर उन्होंने कहा था, ये वक़्त की तस्वीर है बेटा। इसे तुम सिर्फ़ सामने से पकड़ सकते हो। पीछे से ये गंजा होता है, निकल गया तो हाथ मलते रह जाओगे।

वक़्त वाकई पीछे से गंजा होता है अम्मी!

अम्मी तुम तो मां हो। और मां अपने बच्चे के दर्द को मीलों दूर से भी महसूस कर लेती है। तुम भी तो महसूस करती होंगी मेरा दर्द? मेरे इस दर्द और इन जज़्बात का पता अगर हमारे आकाओं को लग गया तो जो मौत अभी अलसाई सी धीरे-धीरे मेरी जानिब बढ़ रही है, वो चीते की सी फ़ुर्ती के साथ मुझ पर झपट पड़ेगी। मैं जीना चाहता हूं अम्मी, इस तरह से रोज़-रोज़ किस्तों में मरना नहीं चाहता। मैं इस बात से बेख़बर रहना चाहता हूं कि मेरा नाम लिखा वो कारतूस किसकी बंदूक में है, मेरे साथियों की, या पुलिस की।

अम्मी, मैं घिसट रहा हूं अंधी सुरंग में। मेरे घुटने-कुहनियां छिल रहे हैं। चारों तरफ़ अंधेरा है। मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है।

दिन ढल गया है अम्मी! 
……………………….……. ख़त जो लिखा नहीं गया / शिशिर कृष्ण शर्मा
(‘जनसत्ता सबरंग’/दिसम्बर 1998 में प्रकाशित !!!) 



विशेष : मुंबई में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर रहे कुछ कश्मीरी मुस्लिम नौजवानों से हुई बातचीत इस कहानी के जन्म का आधार बनी।  
 

2 comments:

  1. Very touching story. I like these words "मैं तरसता हूं अम्मी तुम्हारा दुलार पाने को। बहुत याद आती हैं तुम्हारी बनाई रोटियां, वो लज़ीज़ आलूदम का सालन और उससे बढ़कर तुम्हारा अपने हाथों से खिलाना।". But then life moves on as usual.

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